उत्तराखंड के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत एक सहज व्यक्ति हैं। वह मेहनत भी करते हैं और लगातार सक्रिय रहते हैं। लेकिन, प्रशासनिक अनुभव की कमी और अफसरों पर अत्यधिक निर्भरता से उनके अब तक के कार्यकाल में उत्तराखंड में वैसा विकास नहीं हो सका है, जिसकी उम्मीद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की डबल इंजन वाली सरकार से की जानी चाहिए। देखा जाए तो उत्तराखंड में जो भी विकास दिख रहा है, उसके पीछे केंद्र सरकार की ही योजनाएं है। राज्य के नाम पर तो नजर आने वाला कुछ भी नहीं हो रहा है। उत्तराखंड बनने से पहले इस पहाड़ी राज्य की जो दिक्कतें थीं, वे राज्य बनने के बाद भी हल नहीं हो सकी है। पहले भी पहाड़ को न जानने वाले बाहरी अधिकारी दिल्ली व लखनऊ में बैठकर योजनाएं बनाते थे। अब लखनऊ की जगह देहरादून हो गया है। केंद्र सरकार में जिस तरह से उत्तराखंड के अधिकारियों का दबदबा दिखता है, वैसा अपने राज्य में नहीं दिखता। बाहरी अधिकारियों की वजह से यहां बनने वाली तमाम योजनाओं में उत्तराखंड के लोगों को कोई लाभ नहीं हो पाता है। कोरोना की वजह से बाहर से लौटे लोगों के रोजगार के लिए राज्य सरकार का जोर मनरेगा में काम करने पर है, जबकि हकीकत यह है कि राज्य वापस लौटने वाले अधिकांश उत्तराखंडी राज्य के बाहर बिहार या यूपी के लोगों की तरह मजदूरी नहीं करते हैं। बाकी योजनाएं भी ऐसी हैं कि आवेदकों को अफसर ही चक्कर में डाल रहे हैं और लोग दफ्तरों के चक्कर लगा-लगाकर चक्कर खा रहे हैं। मुख्यमंत्री रावत के पास अब भी दो साल का समय है, अगर वे अफसरों के चंगुल से खुद को निकाल उत्तराखंड के लोगों की जरूरत के मुताबिक फैसले कर पाते हैं हैं तो यह उनके खुद के लिए और उनकी सरकार के लिए बेहतर होगा।