विशेष संवाददाता
देहरादून। अगले चुनाव यानी 2022 में उत्तराखंड में क्या होगा, यह तो असल में तभी पता चलेगा। लेकिन, आज हम उन सवालों को उठाते हैं, जिनसे भाजपा के मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में स्थापित किले भरभरा कर गिर गए। इसमें भी अगर मध्य प्रदेश की बात करें तो वहां पर मामा यानी शिवराज सिंह चौहान के खिलाफ कभी बहुत नाराजगी नहीं रही। वे व्यक्तिगत तौर पर अपने तीनों ही कार्यकालों में लोगों की पसंद बने रहे। उन्होंने कभी न तो प्रतिशोध की राजनीति की और न ही कभी आलोचकों का दमन किया। उन्होंने कभी असहमति के स्वरों को दबाने की भी कोशिश नहीं की। उन्हें जहां पर लगा गलती हो रही उन्होंने स्वीकार की और उसे ठीक किया। यही वजह रही की मध्य प्रदेश में कम सीटें आने के बावजूद भाजपा को मिले वोट कांग्रेस से अधिक थे। उनकी हार की वजह लोगों में बदलाव की चाहत और कांग्रेस द्वारा किसानों की कर्ज माफी का वायदा अधिक रहा। लेकिन, मामा की लोकप्रियता बनी रही। अब बात करते हैं छत्तीसगढ़ की। डॉ. रमन सिंह ने विकास में कोई कसर नहीं छोड़ी। अजित जोगी ने जहां-जहां गलतियां की थीं, उन्होंने उसे दुरुस्त किया। उन्होंने राज्य के सभी समाजों में सामंजस्य भी स्थापित किया। लेकिन, वह भी अहंकार का शिकार हो गए। उन्होंने भी असहमति की आवाज को दबाने की कोशिश शुरू कर दी। छत्तीसगढ़ से संबंध रखने वाले दिल्ली के एक बहुत ही वरिष्ठ पत्रकार को कथित सीडी कांड में गिरफ्तार करा दिया। अब यही पत्रकार भूपेश बघेल सरकार में मीडिया सलाहकार हैं। दमन की कोशिश पर हुई जनता की प्रतिक्रिया ही रमन सिंह की हार की वजह बनी। अब हम फिर सवाल करते हैं कि क्या उत्तराखंड में भी असहमति की आवाज को दबाने की कोशिश हो रही है? क्या किसी सही या गलत खबर (हम खबर की प्रकृति को जांच के लिए छोड़ रहे हैं) पर किसी पत्रकार को आधी रात को गिरफ्तार करना ठीक है? क्या किसी खबर से सरकार के लिए इतना खतरा हो सकता है कि वह रातोंरात गिर सकती है? जिन लोगों पर आज आरोप लगाए जा रहे हैं, क्या उनकी मदद कभी भाजपा ने नहीं ली थी? अगर वे तब ठीक थे तो आज गलत कैसे हो गए? इन सवालों के जवाब शायद आपको 2022 के बारे में कुछ स्पष्ट तस्वीर खींचने में मदद करें। जैसा आपका जवाब होगा वैसी ही तस्वीर उभरेगी।
अब हम अगला सवाल यह उठाते हैं कि क्या उत्तराखंड सरकार या प्रशासन ईमानदार है? अगर आंकड़ों को देखें तो यहां पर बस आरोप ही लगते रहे हैं, दोषी कोई साबित नहीं होता। यहां पर सवाल यह है कि या तो आरोप गलत थे या जांच ठीक नहीं हुई या कुछ और बात है। इसमें से कौन सा विकल्प सही है यह आपको ही चुनना है। आगे मैं एक सच्चा किस्सा आपसे साझा करना चाहता हूं। यह उस समय की बात है, जब उत्तराखंड नहीं बना था। देहरादून की कोतवाली में एक इंस्पेक्टर इंचार्ज बनकर आए। उन्होंने आते ही प्रेस कान्फ्रेंस की और जल्द ही मीडिया के चहेते बन गए। वे ईमानदार थे या भ्रष्ट यह बहस का विषय है। लेकिन, उन्होंने पल्टन बाजार में छोटी-छोटी फड़ी लगाने वाले लोगों से होने वाली रोजाना की वसूली पर सख्ती से रोक लगा दी। इस बारे में एक बार अनौपचारिक बातचीत में उन्होंने कहा कि अगर पुलिस किसी बड़े मामले में बड़ी रिश्वत लेती है तो इसका अक्सर खुलासा नहीं होता, क्योंकि इसमें दोनों के ही हित जुड़े होते हैं, लेकिन जब आप रोजी कमाने के लिए रेहड़ी-फड़ लगाने वालों से रिश्वत लेते हो तो वह दुखी होता है और अनेक लोगों को बताता भी है। यही नहीं बड़ी संख्या में लोगों से रिश्वत लेकर भी बहुत ही छोटी रकम आती है। उनका यह तर्क काफी हद तक ठीक भी है, क्योंकि इससे ऐसी छवि बनती है कि चारों ओर भ्रष्टाचार है। अगर कोई सरकार आम आदमी को उसकी मामूली कमियों वाले या पूरी तरह सही काम के लिए सरकारी अधिकारियों या कर्मचारियों को रिश्वत देने से बचा ले तो सरकार को ईमानदार कहा जाता है वरना उसकी छवि प्रभावित होती ही है। अब सवाल यही है कि क्या उत्तराखंड में आम आदमी को अपने हर सही काम के लिए भी रिश्वत देनी पड़ती है या उसका काम बिना रिश्वत के होता ही नहीं है? यह एक ऐसा सवाल है, जिसका जवाब जब तक हां में होगा तब तक हर चुनाव के बाद सरकारें बदलती ही रहेंगी। फिर चाहे कितना ही विकास हो, कितनी ही नम्र सरकार हो।
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