पहली दिक्कत- उत्तर प्रदेश में अधिकारी पहाड़ को समझते नहीं हैं, इसलिए उत्तराखंड के लिए बनने वाली योजनाएं धरातल पर फिट नहीं बैठतीं।
राज्य बनने के 20 सालों में हमें इससे शायद ही आजादी मिली हो। सरकार किसी भी दल की रही हो, बाहरी अफसर ही हावी रहे और योजनाओं का सच सबके सामने है। केदारनाथ आपदा के समय इन अफसरों का सच सामने आ चुका है।
दूसरी दिक्कत-उत्तर प्रदेश सचिवालय में बहुत भ्रष्टाचार है। गढ़वाल व कुमाऊं के अफसरों व कर्मचारियों की कमी की वजह से भी परेशानी होती है।
उत्तराखंड का सचिवालय इससे बच पाया हो ऐसा नहीं लगता। भ्रष्टों पर कार्रवाई नहीं होने से दागियों के हौसले बढ़े हैं। अब भी बाहरी अधिकारी व कर्मचारी भी बड़ी संख्या में हैं। लेकिन, उत्तराखंड मूल के अधिकारी और कर्मचारी ईमानदार हैं, ऐसा नहीं हैं। कई मामलों में तो उत्तराखंड के कर्मचारी अधिक भ्रष्ट नजर आते हैं। इस दिक्कत से तो तत्काल स्वतंत्रता की जरूरत है।
तीसरी दिक्कत- उत्तर प्रदेश के अफसर पहाड़ी रीतिरिवाजों को नहीं समझते हैं।
यह एक ऐसी दिक्कत है, जो कुछ हद तक दूर हुई है। अब हम हरेला व फूल देई जैसे पर्वों को मनाने लगे हैं। हमारा पहाड़ी भोजन भी जगह बना रहा है। भोपाल, इंदौर, दिल्ली व मुंबई जैसे शहरों में उत्तराखंडी फूड फेस्टिवल आयोजित होने लगे हैं।
चौथी दिक्कत- उत्तराखंड में सड़कों व रेल के विकास पर किसी ने भी ध्यान नहीं दिया, जिससे सफल बहुत मुश्किल होती है। मुख्य मार्गों से दूर बसे गांवों तक पैदल जाना ही विकल्प है।
पिछले कुछ सालों में पहली बार उत्तराखंड की सड़कों पर काम तेज हुआ है। ऑलवेदर रोड बनने से बहुत आसानी होगी। पर्यावरण को लेकर कुछ सवाल हो सकते हैं, लेकिन इसके बावजूद सड़कों को लेकर उत्तराखंड में काफ काम हुआ। हालांकि अभी बहुत काम बाकी है। अनेक दूरस्थ गांव सड़कों से जुड़ चुके हैं, लेकिन इससे भी कई गुना अभी जुड़ने हैं। देहरादून व दिल्ली में बैठकर सड़कों के विकास को पर्यावरण के लिए खतरा बताना ठीक है, लेकिन अगर स्थानीय नजरिए से देखें तो सड़कें हर व्यक्ति के लिए जरूरी हैं।