नई दिल्ली। भारतीय किसान यूनियन के प्रवक्ता राकेश टिकैत के आंसू आज बहस का विषय बन गए हैं। टिकैत रोए क्यों? इसका जवाब टिकैत के पास भी नहीं हैं। लेकिन हमारे राजनेताओं ने इन आंसुओं में अपने भविष्य की तस्वीर को देखना शुरू कर दिया है। विपक्ष तो इन आंसुओं से इतना उत्साहित है कि उसने पहले तो इन्हें किसान आंदोलन का टर्निंग प्वाइंट बताया और अब तो ये भारतीय राजनीति का टर्निंग प्वाइंट कहे जाने लगे हैं। वहीं भाजपा इन आंसुओं को नौटंकी करार दे रही है। सरकार का समर्थक मीडिया लगातार ही इन आंसुओं पर अंगुली उठा रहा है, वहीं सरकार विरोधी मीडिया इन आंसुओं को महत्व देने के लिए प्रधानमंत्री मोदी के आंसुओं से इनकी तुलना कर रहा है। कुल मिलाकर अब चर्चा के केंद्र में ये आंसू आ गए हैं।
आंसू आना एक सामान्य भावनात्मक प्रतिक्रिया है, लेकिन राजनीति में बहुत महत्व रखते हैं। जब राहुल गांधी को कांग्रेस में पहली बार उपाध्यक्ष की जिम्मेदारी मिली थी तो उन्होंने ने बताया था कि उनकी मां सारी रात रोती रही हैं। अगर रोने से राजनीति में टर्निंग प्वाइंट आ सकता है तो फिर रोना कौन सी बड़ी बात है? जनता का तो वैसे ही रो-रोकर बुरा हाल है। कोई पेट्रोल-डीजल की कीमतें को लेकर रो रहा है तो कोई बेरोजगारी व महंगाई से त्रस्त है। कई बार तो आदमी खुशी में भी रोने लगता है। अब देखते हैं कि रोने से उत्पन्न यह टर्निंग प्वाइंट किधर लेकर जाता है। विपक्ष तो इन आंसुओं इस कदर उत्साहित हुआ कि राहुल गांधी कल पूरे दिन भाषा बदल-बदलकर दिनभर ट्वीट ही करते रहे। दिल्ली में मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल व उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया भी खुलकर आंदोलन के पक्ष में आ गए। सवाल यह है कि दिल्ली के सभी बॉर्डरों पर किसानों के जमावड़े से किसको सबसे अधिक दिक्कत हो रही है? जबाव आसान है – दिल्ली वालों को। लेकिन आगे चुनाव दिल्ली में नहीं यूपी और पंजाब में हैं और किसान भी इन्हीं राज्यों से संबंधित हैं। इसलिए दिल्ली के लोगों को झेलने दो दिक्कत।
अब रही बात नए कृषि कानूनों की तो इनकी व्याख्या सब अपने-अपने तरीके से कर रहे हैं। रोने वाले राकेश टिकैत इन्हीं बिलों को पहले किसानों के सपने पूरे होने वाला कह चुके हैं। शुक्रवार को दिनभर उनके बयान की न्यूजपेपर कटिंग सोशल मीडिया में वायरल रही है। कृषि विशेषज्ञ भी इन कानूनों को किसानों के हित में बता चुके हैं। लेकिन, किसानों की कुछ जायज आशंकाएं भी हैं, जिन्हें दूर करना सरकार की जिम्मेदारी है। यह कोई बड़ी मुश्किल नहीं है, लेकिन वाम राजनीति से प्रभावित किसान नेता इन कानूनों को पूरी तरह से वापस लेने की मांग कर रहे हैं। यह ऐसी मांग है, जिसे सरकार कभी नहीं मानेगी और आंदोलन जारी रहेगा। सरकार कानून को दो साल के लिए स्थगित करने का भरोसा देकर पहले ही काफी लचीला रुख दिखा चुकी है।
जहां तक राजनीति का सवाल है तो अब कृषि बिल से अधिक जोर किसानों के सम्मान पर दिया जाने लगा है। इसकी वजह स्पष्ट है कि बिल से देश के सभी किसानों का कोई लेना देना ही नहीं है। एमएसपी का सबसे अधिक फायदा हरियाणा, पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के ही कुछ जिलों को ही मिला है। देश के बाकी हिस्सों में किसानों को एमएसपी का न तो लाभ मिला और न ही उन्हें इसकी जरूरत महसूस हुई। छत्तीसगढ़ में तो राज्य सरकार की बोनस स्कीम किसानों के लिए वरदान बनी हुई है। फिर देश के अन्य हिस्सों में होने वाली फसलों के प्रकार ऐसे हैं कि वे एमएसपी के दायरे में ही नहीं आते हैं। इसकी अन्य बड़ी वजह यह भी है कि किसानों को उनकी फसल का दाम पहले ही एमएसपी से अधिक मिल जाता है। यह इसलिए होता है क्योंकि वे अपनी फसल में रासायनिक खादों का इस्तेमाल बहुत कम करते हैं। उनका प्रति एकड़ उत्पादन भले ही कम होते हो पर मूल्य अच्छा मिलता है।
कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के लिए ये किसान राजनीतिक रूप से बहुत महत्व रखते हैं। वजह पंजाब है। दोनों ही दल इसे सिख किसानों को अपने पक्ष में करने का मौका मान रहे है, लेकिन भाजपा इसे गैर सिख वोटों को पटाने का मौका मान रही है। अकाली दल से अलग होने के बाद वैसे भी आगामी चुनाव में भाजपा ही पंजाब के गैर सिख मतदाताओं की पहली पसंद होगी। उत्तर प्रदेश में तो निश्चित ही चुनावों के वक्त कुछ अन्य मुद्दे हावी रहेंगे, जो स्थानीय स्तर पर लोगों के लिए किसान बिल की आशंकाओं से कहीं अधिक महत्व रखते हैं। इसालिए हो सकता है कि टिकैत के आंसू आज भले ही टर्निंग प्वाइंट दिख रहे हों, लेकिन इनसे भाजपा को कोई नुकसान होगा यह अनुमान लगाना जल्दबाजी ही होगी।